Tuesday, December 23, 2008

तन्हाई का आलम पुराना...

Composed while my wife (life) was away visiting her parents....
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साँसों का अहसास भी अब बेगाना सा लगता है;
तेरे बिन हर इक लम्हा वीराना सा लगता है;

वही दर-ओ-दीवार, वही झरोखा, वही फानूस सजा;
मगर आईना भी अब तो अनजाना सा लगता है;

सर्द हवाएं ना जाने किस का पता पूछ रही हैं मुझसे;
दिल में कैसी ख़लिश है, हर ख़याल बेमाना सा लगता है;

कितने लम्हे गुज़रे, कितने और गुज़रना बाक़ी हैं;
लम्हों का यह खेल साज़िश-ऐ-ज़माना सा लगता है;

कहीं दूर से आती है जब कोई आवाज़ गर कभी;
मानो साए से निकल कर तेरा आना सा लगता है;

दिल ने तुझ को याद किया है आज इतना सनम;
तेरी जुदाई का आलम ग़मगीन अफसाना सा लगता है;

वोह पूछते हैं हमसे अरमान क्या हाल है आप का;
दिलावेज़ वही तन्हाई का आलम पुराना सा लगता है...

2 comments:

Unknown said...

mast hai bhai sahab....sahi hai.........

Anonymous said...

Wah, wah! ये ज़िन्दगी का लम्बा सफ़र, याद आता है; तेरी जुल्फों का घना घना साया

Pradipta