Wednesday, December 24, 2008

An Excellent Composition by Asrar-ul-Haq Majaz

कुछ तुझ को है ख़बर हम क्या क्या ऐ शोरिश-ए-दौरां भूल गए;
वह ज़ुल्फ़-ए-परीशां भूल गए, वह दीद-ए-गिरयां भूल गए;

ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए नज़रों में कोई सूरत ही नहीं;
ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या किजिए हम सूरत-ए-जानां भूल गए;

अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं अब दिल की कली खिलती ही नहीं;
ऐ फ़स्ले बहारां रुख़्सत हो, हम लुत्फ़-ए-बहारां भूल गए;

सब का तो मदावा कर डाला अपना ही मदावा कर न सके;
सब के तो गिरेबां सी डाले, अपना ही गिरेबां भूल गए;

यह अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिये;
एक नश्तर-ए-ज़हर-आगीं रख कर नज़्दीक रग-ए-जां भूल गए...

Tuesday, December 23, 2008

तन्हाई का आलम पुराना...

Composed while my wife (life) was away visiting her parents....
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साँसों का अहसास भी अब बेगाना सा लगता है;
तेरे बिन हर इक लम्हा वीराना सा लगता है;

वही दर-ओ-दीवार, वही झरोखा, वही फानूस सजा;
मगर आईना भी अब तो अनजाना सा लगता है;

सर्द हवाएं ना जाने किस का पता पूछ रही हैं मुझसे;
दिल में कैसी ख़लिश है, हर ख़याल बेमाना सा लगता है;

कितने लम्हे गुज़रे, कितने और गुज़रना बाक़ी हैं;
लम्हों का यह खेल साज़िश-ऐ-ज़माना सा लगता है;

कहीं दूर से आती है जब कोई आवाज़ गर कभी;
मानो साए से निकल कर तेरा आना सा लगता है;

दिल ने तुझ को याद किया है आज इतना सनम;
तेरी जुदाई का आलम ग़मगीन अफसाना सा लगता है;

वोह पूछते हैं हमसे अरमान क्या हाल है आप का;
दिलावेज़ वही तन्हाई का आलम पुराना सा लगता है...

Friday, December 05, 2008

बहार-ऐ-वफ़ा

This is a rejoinder to my previous post titled "शिकस्त-ऐ-वफ़ा"
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जाने क्यूँ कानों में गूंजती हर सिम्त यह शहनाई है आज;
उल्फत का वोह "दिलावेज़" चेहरा, हसीं शाम फिर ले आई है आज;

महफिल-ऐ-गुलज़ार है, गुलों और गुंचों की शमा भी रौशन है;
हर सिम्त से खुशियों की चादर लपेटे बहार आई है आज;

जशन-ऐ-खुदाई में यह कहाँ मुमकिन, मुकम्मल हो हर बात;
पर इसके बावजूद, हर तरफ़ महफिल-ऐ-खुशहाली छाई है आज;

अब सुबह का इंतज़ार किसे, फलक पे छाया वोह चांदनी का झूमर;
क्या खूब वोह जाम-ऐ-विसाल है जो तू ने पिलाई है आज;

क्या मैं सिला दूँ, कौन सा वाज़ीफा तुझे नज़र-ऐ-इनायत करूँ;
तू ने जो इनायत की है, मेरी हस्ती की इक नई शनासाई है आज;

अब बहारों के आगोश में पल रहे हैं हसरतों के नये ख्वाब;
जिंदगी जैसे "अरमान" बहार-ऐ-वफ़ा में समा कर आई है आज........

Saturday, February 16, 2008

Ishq Yeh Dekhke Hairaan Hai!!

Although I have not yet watched Jodha Akbar, (and would probably not watch it at all) my inner sense keeps telling me :: It's not worth it. I can never stand Hrithik Roshan as Emperor Akbar (naaaaaaaaaaaa!!), never. As a normal psychological tendency, one would expect it to be close to Mughal-e-Azam; which is obviously not the case in any sense.

However, one thing that still makes me feel good about the movie is -- Ishq yeh dekhke hairaan hai! Jawed Akhtar is good, after all :-) Enjoy the lyrics!
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Kehne ko Jashn-e-bahara hai
Ishq yeh dekhke hairaan hai

Phool se khusboo khafa khafa hai gulshan mein
Chupa hai koi ranj fiza ki chilman mein
Sare sehmein nazare hain
Soye soye vaqt ke dhare hain
Aur dil mein koi khoye si baatein hain

Kehne ko Jashn-e-bahara hai
Ishq yeh dekhke hairaan hai

Kaise kahen kya hai sitam
Sochte hai ab yeh hum
Koi kaise kahen woh hai ya nahi humare
Karte to hai saath safar

Faasle hain phir bhi magar
Jaise milte nahi kisi dariya ke do kinare
Pass hain phir bhi paas nahi

Humko yeh gum raas nahi
Seeshe ki ek diware hai jaise darmiya
Sare sehmein nazare hain

Soye soye vaqt ke dhare hain
Aur dil mein koi khoye si baatein hain

Kehne ko Jashn-e-bahara hai
Ishq yeh dekhke hairaan hai
Phool se khusboo khafa khafa hai gulshan mein

Chupa hai koi ranj fiza ki chilman mein

Hum ne jo tha nagma suna
Dil ne tha usko chuna
Yeh dastaan humein vaqt ne kaise sunai
Hum jo agar hai gumgee

Woh bhi udhar khush to nahi
Mulakato mein hai jaise ghul si gai tanhai
Milke bhi hum milte nahi

Khilke bhi gul khilte nahi
Aankhon mein hai baharein dil mein khiza
Sare sehmein nazare hain

Soye soye vaqt ke dhare hain
Aur dil mein koi khoye si baatein hain

Kehne ko Jashan-e-bahara hai
Ishq yeh dekhke hairaan hai

Phool se khusboo khafa khafa hai gulshan mein
Chupa hai koi ranj fiza ki chilman mein