कुछ तुझ को है ख़बर हम क्या क्या ऐ शोरिश-ए-दौरां भूल गए;
वह ज़ुल्फ़-ए-परीशां भूल गए, वह दीद-ए-गिरयां भूल गए;
ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए नज़रों में कोई सूरत ही नहीं;
ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या किजिए हम सूरत-ए-जानां भूल गए;
अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं अब दिल की कली खिलती ही नहीं;
ऐ फ़स्ले बहारां रुख़्सत हो, हम लुत्फ़-ए-बहारां भूल गए;
सब का तो मदावा कर डाला अपना ही मदावा कर न सके;
सब के तो गिरेबां सी डाले, अपना ही गिरेबां भूल गए;
यह अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिये;
एक नश्तर-ए-ज़हर-आगीं रख कर नज़्दीक रग-ए-जां भूल गए...
Wednesday, December 24, 2008
Tuesday, December 23, 2008
तन्हाई का आलम पुराना...
Composed while my wife (life) was away visiting her parents....
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साँसों का अहसास भी अब बेगाना सा लगता है;
तेरे बिन हर इक लम्हा वीराना सा लगता है;
वही दर-ओ-दीवार, वही झरोखा, वही फानूस सजा;
मगर आईना भी अब तो अनजाना सा लगता है;
सर्द हवाएं ना जाने किस का पता पूछ रही हैं मुझसे;
दिल में कैसी ख़लिश है, हर ख़याल बेमाना सा लगता है;
कितने लम्हे गुज़रे, कितने और गुज़रना बाक़ी हैं;
लम्हों का यह खेल साज़िश-ऐ-ज़माना सा लगता है;
कहीं दूर से आती है जब कोई आवाज़ गर कभी;
मानो साए से निकल कर तेरा आना सा लगता है;
दिल ने तुझ को याद किया है आज इतना सनम;
तेरी जुदाई का आलम ग़मगीन अफसाना सा लगता है;
वोह पूछते हैं हमसे अरमान क्या हाल है आप का;
दिलावेज़ वही तन्हाई का आलम पुराना सा लगता है...
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साँसों का अहसास भी अब बेगाना सा लगता है;
तेरे बिन हर इक लम्हा वीराना सा लगता है;
वही दर-ओ-दीवार, वही झरोखा, वही फानूस सजा;
मगर आईना भी अब तो अनजाना सा लगता है;
सर्द हवाएं ना जाने किस का पता पूछ रही हैं मुझसे;
दिल में कैसी ख़लिश है, हर ख़याल बेमाना सा लगता है;
कितने लम्हे गुज़रे, कितने और गुज़रना बाक़ी हैं;
लम्हों का यह खेल साज़िश-ऐ-ज़माना सा लगता है;
कहीं दूर से आती है जब कोई आवाज़ गर कभी;
मानो साए से निकल कर तेरा आना सा लगता है;
दिल ने तुझ को याद किया है आज इतना सनम;
तेरी जुदाई का आलम ग़मगीन अफसाना सा लगता है;
वोह पूछते हैं हमसे अरमान क्या हाल है आप का;
दिलावेज़ वही तन्हाई का आलम पुराना सा लगता है...
Friday, December 05, 2008
बहार-ऐ-वफ़ा
This is a rejoinder to my previous post titled "शिकस्त-ऐ-वफ़ा"
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जाने क्यूँ कानों में गूंजती हर सिम्त यह शहनाई है आज;
उल्फत का वोह "दिलावेज़" चेहरा, हसीं शाम फिर ले आई है आज;
महफिल-ऐ-गुलज़ार है, गुलों और गुंचों की शमा भी रौशन है;
हर सिम्त से खुशियों की चादर लपेटे बहार आई है आज;
जशन-ऐ-खुदाई में यह कहाँ मुमकिन, मुकम्मल हो हर बात;
पर इसके बावजूद, हर तरफ़ महफिल-ऐ-खुशहाली छाई है आज;
अब सुबह का इंतज़ार किसे, फलक पे छाया वोह चांदनी का झूमर;
क्या खूब वोह जाम-ऐ-विसाल है जो तू ने पिलाई है आज;
क्या मैं सिला दूँ, कौन सा वाज़ीफा तुझे नज़र-ऐ-इनायत करूँ;
तू ने जो इनायत की है, मेरी हस्ती की इक नई शनासाई है आज;
अब बहारों के आगोश में पल रहे हैं हसरतों के नये ख्वाब;
जिंदगी जैसे "अरमान" बहार-ऐ-वफ़ा में समा कर आई है आज........
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जाने क्यूँ कानों में गूंजती हर सिम्त यह शहनाई है आज;
उल्फत का वोह "दिलावेज़" चेहरा, हसीं शाम फिर ले आई है आज;
महफिल-ऐ-गुलज़ार है, गुलों और गुंचों की शमा भी रौशन है;
हर सिम्त से खुशियों की चादर लपेटे बहार आई है आज;
जशन-ऐ-खुदाई में यह कहाँ मुमकिन, मुकम्मल हो हर बात;
पर इसके बावजूद, हर तरफ़ महफिल-ऐ-खुशहाली छाई है आज;
अब सुबह का इंतज़ार किसे, फलक पे छाया वोह चांदनी का झूमर;
क्या खूब वोह जाम-ऐ-विसाल है जो तू ने पिलाई है आज;
क्या मैं सिला दूँ, कौन सा वाज़ीफा तुझे नज़र-ऐ-इनायत करूँ;
तू ने जो इनायत की है, मेरी हस्ती की इक नई शनासाई है आज;
अब बहारों के आगोश में पल रहे हैं हसरतों के नये ख्वाब;
जिंदगी जैसे "अरमान" बहार-ऐ-वफ़ा में समा कर आई है आज........
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